बूढ़ी दादी बैठा करती
सड़क की एक किनारे
जामुन बेचती खट्टे और देसी
एक ठेले पर बैठे
कभी साईकल, कभी स्कूटर
कभी बाइक, कभी कार
सब आकर रुकते थे
उसके द्वार।
वहीं बैठे वह दिनों को शाम करती
शामों को रात
एक हाथ पंखे से बच्चा सुलाती
बेचती दूसरे हाथ
ना जाने कितने साल उसने
उसी पेड़ तले गुज़ारे थे
कितनी ही रातों को उसने
पेट मरोड़ते बिताए थे
एक दिन हम उसी मोड़ से गुज़रे
एक तरफ देखा, फिर दूसरी ओर
वो नज़र न आई हमें
भरी दोपहर का शोर
खो गई क्या? ठीक तो होगी?
दिल धकधका सा गया
बचपन की कोई प्यारी गुड्डी
कोई टूटा बल्ला मानो खो से गया
मैंने दो तीन घंटे इंतज़ार किया
फिर भी मन मानता ही नही
फिर उन्हें आते देखा
जैसे कभी गई ही नही
मुझे इंतज़ार करते देख वो बूढ़ी
जामुन वाली मुस्कुराई
और पूछा, "जामुन लोगे?"
मेरी आँखें भर आईं।