इनकार से कुछ तुम्हारा भी सबक है
मंज़र - ए - तनहाई पर मेरा ही हक़ है
कह लो खुदगर्ज़ी है मेरी या खिस्सत है
टपरी पर सुट्टे और चाय की कसक है
एक डब्बा है, उसमें तुम्हारी लिखावट है
पन्नों में दफ्न तुम्हारे वादों पर शक है
आरज़ू की तलब, शमा भी स्याह है
मुझे बरबादी में जीने का हक़ है